एक नये अध्ययन से पता चला है कि टेंशन यानी तनाव का सामना कर रही महिलाएं जब हत्या और बलात्कार जैसी बुरी खबरें पढ़ती हैं तो इससे उनके व्यवहार पर असर पड़ता है और वे इसी हिसाब से बर्ताव करती हैं.
शोधकर्ताओं ने ये नतीजा 60 लोगों पर किए अध्ययन से निकाला है जो बताता है कि ऐसी खबरों का पुरूषों के बर्ताव पर वैसा असर नहीं पड़ता जैसा महिलाओं पर पड़ता है.
ये शोध 'प्लास वन' नामक जर्नल में प्रकाशित हुआ है.
शोधकर्ताओं का कहना है कि ये नतीजे स्त्री-पुरूष के बीच पाए जाने वाले गहरे अंतरों को दिखाता है.
शोध का तरीका
कनाडा में शोधकर्ताओं ने अख़बार में छपने वाली नकारात्मक ख़बरों की क़तरनें काटीं. इनमें दुर्घटना और हत्या की ख़बरों के साथ ही फिल्म प्रीमियर जैसी ख़बरें भी शामिल थीं.
इन ख़बरों को औरत-पुरुष सभी को पढ़ाया गया और फिर वैज्ञानिक तरीके से जांच की गई कि उनका तनाव का स्तर कितना है.
इस जांच में कोर्टिसोल हॉर्मोन का स्तर नापा गया जो इंसानों में तनाव के लिए ज़िम्मेदार होता है.
मॉन्ट्रियाल यूनिवर्सिटी की शोधकर्ता मैरी फ्रांस मेरीन कहती हैं, ''इस तरह की ख़बरें महिलाओं में तनाव का स्तर सीधे-सीधे नहीं बढ़ाती है. होता ये है कि इस तरह की ख़बरें महिलाओं को दिमागी तौर पर ज़्यादा सक्रिय बना देती हैं जिससे इस हालात में उनके बर्ताव पर असर पड़ता है.''
लेकिन, इन ख़बरों ने पुरुषों में कोर्टिसोल के स्तर में किसी तरह का बदलाव नहीं किया.
इस बारे में मेरीन कहती हैं, ''जिस पैमाने पर ख़बरें आती है, उस हिसाब से ख़बरों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता, ख़ासतौर पर तब जब सारी ख़बरें बुरी हो.'
स्त्री-पुरुष की गुत्थी
वैज्ञानिकों का मानना है कि अपने बच्चों पर ख़तरों के प्रति महिलाएं क़ुदरती तौर पर ज्यादा संवेदनशील होती हैं और उन्हें ख़तरों की ज़्यादा समझ होती है.
वैज्ञानिकों कहते हैं कि इसी वजह से तनाव के पलों में उनका व्यवहार भी पुरुषों की तुलना में अलग होता है.
किंग्स कॉलेज लंदन के प्रोफेसर टेरी मोफिट की राय है, ''ये अध्ययन किसी प्रयोग के बाद स्ट्रेस हॉरमोंस में बदलाव आने का नया प्रमाण है. तनाव पर शोध कर रहे शोधकर्ताओं के लिए स्त्री-पुरुष का भेद वाकई एक गुत्थी है.''
वे कहते हैं, ''महिलाएं अपने ह्रदय-तंत्र पर तनाव के असर को किस तरह कम करती हैं, इस सवाल का जवाब हम सभी की तबीयत बेहतर कर सकता है.''
लेकिन अन्य विशेषज्ञों ने इस शोध के नतीजों के प्रति चेतावनी दी है. उनका कहना है कि इस शोध में शामिल लोगों की संख्या बहुत कम है, इसलिए इसे ज्यादा लोगों पर आज़माने की ज़रूरत है.
its true
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